Sunday, July 30, 2023

तन्हाई जब , दर्द से मिलती है , poem by Alok chantia

 तन्हाई जब ,

दर्द से मिलती है ,

ये मत पूछो रात भर ,

क्या बात चलती है ,

दीवारों के पीछे कुछ ,

नंगे होते बेशर्म सच ,

साकी सी आँखे ,

बार बार मचलती है ,

शब्दों की खुद की ,

न सुनने की आदत ,

दिल की आवाज बस ,

हर रात ही सुनती है ,

तारों के साथ गुजरी ,

लम्हों में सांसो के बाद ,

सुबह की आहट आलोक ,

क्यों मुझको खलती है ,

अकेले में अकेले का ,

एहसास जब मिलता है ,

जिंदगी क्या बताऊँ ,

तू कैसे संग चलती है

आलोक चांटिया

Monday, July 17, 2023

जो भी देखा आँखों से देखा .....poem by Dr Alok chantia

 जो भी देखा आँखों से देखा .....

ये किसको सच तुम मान रहे ........

आकाश का रंग काला ही होता ....

पर उसको भी नीला मान रहे ......

आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........

पानी का भ्रम पैदा कर देती है  ............

तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....

रेगिस्तान भेज जब देती है .........

आँख की भाषा पड़कर जब ....

प्रेम किसी को लगता है ......

सूनी आँखों में विरह था वो .....

जो राधा को विकल करता है .....

आज फिर न कर लो आलोक ........

विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........

देश नहीं हाहाकार  बढ रहा ........

प्रगति विनाश की राखो पर .......


आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........

आलोक चांटिया

Sunday, July 16, 2023

कविता द्वारा डॉक्टर आलोक चांटिया

 जो भी देखा आँखों से देखा .....

ये किसको सच तुम मान रहे ........

आकाश का रंग काला ही होता ....

पर उसको भी नीला मान रहे ......

आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........

पानी का भ्रम पैदा कर देती है  ............

तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....

रेगिस्तान भेज जब देती है .........

आँख की भाषा पड़कर जब ....

प्रेम किसी को लगता है ......

सूनी आँखों में विरह था वो .....

जो राधा को विकल करता है .....

आज फिर न कर लो आलोक ........

विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........

देश नहीं हाहाकार  बढ रहा ........

प्रगति विनाश की राखो पर .......


आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........

आलोक चांटिया

चूहे की भूल .......... कविता द्वारा डॉक्टर आलोक चांटिया

 चूहे की भूल ..........

ग़ुरबत में कोई मुरव्वत नहीं होती है  ,

रोटी की तलाश हर किसी को होती है ,

मैं भी एक रोटी तलाशता  हूँ हर दिन ,

बनाता भी दो अपने लिए  रोज रात ,

पर कमरे का चूहा पूछता है एक बात ,

क्या आज भी मेरा हिस्सा नहीं है ,

मैंने भी तो तुम पर भरोसा किया ,

रात दिन तुम्हारे  इर्द गिर्द जिया ,

कितना खाऊंगा एक टुकड़ा ही तो ,

उसके लिए भी तुमने मुझे जहर दिया ,

आदमी तुम कितने गरीब हो ,

रिश्तो के तो पूरे रकीब हो ,

जब मुझे एक टुकड़ा नहीं खिला सके ,

अपने कमरे में मुझे बसा ना सके ,

तो भला उन मानुस का क्या होगा ,

जो तेरी जिंदगी में यही  कही होगा ,

कितना हिसाब लगाते होगे रोटी का ,

जहर क्या मोल है उसकी भी रोटी का ,

मैं जानता नहीं गर्रीबी क्या होती है ,

चूहा हूँ बताओ आदमियत क्या होती है .......... आलोक चांटिया