Sunday, April 30, 2023

तुम कहो तो हर सांस में आलोक से सवेरा कर दूं

 तुम कह दो तो एक कविता तुम पर लिख दूँ ,

तुम कह दो तो उसमे मन की बात कह दूँ ,

न जाने कितनी तपती रेत गुजरी पैरो  तले,

तुम कह दो तो एक बूंद पानी पर भी  रख दूँ ,

आँखे न बंद करो इतनी बेबसी से ऐसे आलोक ,

तुम कहो तो सपनो का रंग उनमे भी भर दूँ ,

जब आये ही थे खाली हाथ तो इतना दर्द क्यों ,

तुम कहो तो अपनी मुट्ठी में अँधेरा ही बंद कर दूँ ,

जब मिले थे इस दुनिया से क्या याद है तुमको ,

तुम रहो  तो यादो में नन्हा सा एक झरोखा कर दूँ ,

गुमनाम कौन न हुआ यहा चार कंधो पर चल कर ,

तुम कहो तो आज  बस आंसुओ का बसेरा कर दूँ ,

देख लो  बस एक बार जी  भर कर मुझे  जिन्दगी ,

तुम कहो तो हर सांस में   आलोक  से सबेरा कर दूँ

Alok chantia

रोने का अपना अलग द्वंद है

 रात जैसे  जैसे गहराती गई ,

तारो सी जिन्दगी आती गई ,

सुबह तक सूरज सा चमका ,

सांस  अँधेरे में समाती गई |,

पूरी रात जिसकी बाहों में रहा ,

वही समय अब न जाने कहाँ ,

ढूंढता भी रहा फिर पूरब में ,

वो उम्र का लम्हा फिर  वहां|

मौत की बात करने से डरे ,

फिर भी एक दिन हम मरे ,

सच से भागने  की ये आदत ,

इस झूठ  का हम क्या करें |

रिश्तो के बाज़ार में अकेला ,

फिर भी उसी का हर मेला ,

कोई  क्यों बढ़ कर मिला ,

कोई क्यों भावना से खेला |

जिन्दा रहने पर एक भी नही ,

मरने पर चार कंधे का सहारा ,

कोई भी न बैठा मेरे साथ कभी ,

पर आज था सारा जहाँ हमारा |

एक बूंद में छिपी नदी की कहानी ,

एक आंसू में थी बूंद की जवानी ,

कितना बहूँ की समंदर मिल जाये ,

रास्ते की कसक न होती सुहानी |

आलोक को पाकर चाँद भी चमका ,

तारो का भी कुछ संसार था दमका ,

क्यों फिर भी रहा सफ़र अँधेरे में ,

सपनो में जीकर दिल क्यों छमका |

रेत सा जीवन मुट्ठी में बंद है ,

 जीने के चार दिन भी चंद है ,

हस लो तुम जितना भी चाहो ,

रोने का अपना अलग ही द्वन्द है |Alok chantia

Saturday, April 15, 2023

मानव कहां खो गया

 दूर तक फैला सन्नाटा इतना,

 कि सुई गिरने की भी,

 आवाज सुन सकता है कोई, 

ऐसा इसलिए हो रहा था ,

क्या सब की आत्मा है सोई,

 कभी-कभी चिड़ियों की,

 चहचहाहट भी सुनाई पड़ जाती है,

 बंद कमरे में बाहर से ,

 पर आदमी की कोई भी ,

आहट नहीं आती है ,

कहते हैं जानते हैं पूरी दुनिया,

 मानव से भर गई है ,

पर सच यह भी है ,

मानवता कहीं मर गई है,

अब सड़क पर निकलने पर भी,

 शरीर रगड़ खा जाता है ,

 घूर कर देख भी लेते हैं 

आंखों से ही खा जाता है ,

अब आदमी से आदमी ,

बोलना नहीं चाहता है,

 शायद आदमी आदमी को ,

अब नहीं चाहता है ,

सब अपने पीछे अपनी निशानी,

 छोड़ने की जुगत में लगे हैं ,

इसीलिए मां बाप के घर

 लोगों को  छोटे लगने लगे हैं,

 कोयल गाना गा भी लेती है,

 प्रकृति के साथ बैठकर ,

पर आदमी ना जाने किस,

 धुन में रहता है ऐठ कर ,

पैसे की तरह ही वह अपने,

 चारों तरफ बस उन्हीं से ,

बोलता दिखाई देता है ,

जिससे वह कोई फायदा , 

या फिर कोई अपना सुख उससे

अपने जीवन में लेता है ,

वरना ना जाने कितने घर दीवारों के,

 साथ अकेलेपन से जूझ रहे हैं ,

बूढ़ी होती सांसे थके हुए कदम,

 किसी अपने के होने की ,

कमी से डूब रहे हैं ,

मीठे कौन कहे नमकीन बोल भी,

 अब नहीं बोले जाते हैं,

 बंद दरवाजे न जाने कितने,

 समय बाद खोले जाते हैं,

 कभी-कभी बंद दरवाजों के,

 पीछे ही बंद हो जाती है ,

किसी एक दिल की धड़कन 

चुपचाप अंधेरे में खो जाती है 

 क्योंकि चिड़ियाघर के पिंजड़े की तरह,

 उसमें आदमी रहने लगा है ,

कल की भविष्य की बात करके

अपने में सिमटकर वह डरने लगा है,

 वह जानता भी नहीं अंत 

अपने अंदर के इस शोर का,

किस तरफ जा रहा है मानव,

इंतजार है किस भोर का ।


आलोक चांटिया

Tuesday, April 11, 2023

पेड़ का दर्द

 शहर में उगने की तुमने 

जो जुगत पाल ली थी 

अपनी तरह से जीने की 

एक आरजू डाल ली थी

 पर शायद तुम्हें नहीं मालूम था 

आधुनिकता का जहर एक दिन 

तुमको भी पिलाया जाएगा 

तुम्हारे हिस्से में मिट जाने 

कट जाने का सबब आएगा 

अच्छा लगता है अभी भी 

तुम्हारा यह साहस देख कर 

कि एक दिन तुम्हारा

 लौटकर फिर आएगा 

लेकिन शहर की संस्कृति में

 तुम शायद यह भूल गए 

सड़क चौड़ी करने में तुम्हें

 जड़ से उखाड़ आ जाएगा 

गांव जंगलों को छोड़कर 

शहरों में निकलने का कुछ 

दर्द तो तुम्हारे हिस्से भी आएगा 

आदमी तुम्हें मार कर काट कर ही

 अपने होने एक कहानी लिख पाएगा 

शिव से हटकर तब तक तुम को काटेगा 

जब तक खुद भस्मासुर  नहीं बन जाएगा


आज चौड़ी होती सड़कों पर कटे पेड़ को देखकर जो लाइने मेरी दिमाग में उस दिन वह आप को समर्पित है 

डॉ आलोक चांटिया




अब तो दरख़्त का माहौल भी ना रहा