Saturday, February 25, 2012

mujhe manushya kab samjhoge

खुद को मनुष्य ,
समझने का एहसास है ,
और उन्हें अपने से कम ,
जनजाति कहने का प्रयास है ,
ये जिन्दगी का कौन फलसफा ,
हमारा भी कैसा कयास है ,
थारू , भोक्सा , राजी ,भोटिया ,
क्या नाम काफी न था उनका ,
फिर जनजाति नाम है किनका ,
कहते है हम उन्हें चिडिया घर ,
का जानवर नही मानते है ,
पर आज तक उन्हें आदिम ,वनवासी ,
ही क्यों हर कही मानते है ,
न जाने कितने आधुनिक ने ,
रचाई शादी इन्ही आदिम मानव से ,
पर जाने क्यों जब तब लगते ,
 ये मानवशास्त्रियो को दानव से ,
मानवाधिकार का दौर चल रहा है ,
रंग भेद का दम निकल रहा है ,
फिर भी जनजाति का हनन जरी है ,
न जाने  क्या फितरत हमारी है ,
मानो ना मानो हम दुकान चलाते है ,
इन्ही के नाम पर दुनिया में जाते है ,
पर ओंगे , जारवा नचाये जाते है ,
एक रोटी के लिए रोये जाते है ,
शायद मनुष्यता का अनोखा रंग है ,
जनजाति हमारी कमी का ढंग है ,
कोई इन्हें भी दौड़ गले लगा लेता ,
मानव है ये अब तो बता देता ,
आलोक विचलित है दिल किसे बताऊ ,
काश कभी मै भी इनके काम आऊ..........................
आप सभी को लग सकता है कि मै आज कल जनजाति पर क्यों लिख रहा हूँ , क्योकि मै आज तक नही जन पाया कि हम लोग इन्ही जनजाति पर बात करके न जाने कितनी सुविधाओ में जी जाते है और  देश की ६९८ जनजाति में ज्यादातर यह भी नही जानते कि आधुनिकता का मतलब क्या है ?????????????? क्या मानवधिकार उन्हें गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार नही देता है ????????????????? डॉ आलोक चांत्तिया

Friday, February 24, 2012

mora mann anat kha sukh pave

मनुष्य को बाँट कर ,
मनुष्य को छांट कर ,
मनुष्य खुद क्या रहा ,
पर उसने क्या सहा ,
सब ने मिलके किया ,
खूब हसी और ठठ्ठे,
किसी ने उड़ाई शराब ,
और किसी ने ठुमके ,
जिस के खातिर ये सब ,
उसने भी घर का अँधेरा ,
मिटाने के लिए जलाया ,
एक दीपक ढूंढ़ लाया ,
चूल्हे पर पसीने से भीगी ,
रोटी की सोंधी महक ,
फटे कपड़ो में बदन ,
में उभरी एक चहक ,
जमीन में सोने का ,
पूरा होता उसका सपना ,
अँधेरे से गुजरते ऐसे ,
जीवन को पता ही नही ,
कि दूर कही हवा में ,
रौशनी से नहाये कमरे ,
शराब , मछली के स्वर ,
में फूल से लदे मनुष्य ,
कर रहे है उसी कि बाते ,
दिन ही नही वातानुकूलित ,
कट रही है उनकी राते ,
चाहते है उसके नाम पर ,
बोलने वाले हर कही
एक एक शब्द कि कीमत ,
चलने फिरने का भी मोल ,
लेकिन वह होता है गोल ,
कोठे कि तरह चलते मुजरे ,
उसके जीवन में क्या अब गुजरे ,
इस से किसी को क्या मतलब ,
बस खुद को साबित कर लिया ,
पर उसके लिए क्या किया ,
क्यों सोचे कोई इस पर ,
सेमिनार तो मुंडन , शादी ,
की तरह बस नाते दारी है ,
क्यों कि जीजा फूफा की,
होनी अब दावे दारी है
लड़की वालो की तरह ,
लूटे पिटे जन जाती के लोग ,
सब लुटा कर जिलाने की
जुगत में दामाद को ,
कर्ज में डूब कर हँसाने की ,
की लालसा आज भी है ,
जनजाति होने का अभिशाप ,
सेमिनार के दामादो को ,
हँसाने में कही आज भी है ,
रूठ न जाये क्या पता ,
दामाद है शिक्षा के ,
इसी लिए जनजाति को ,
बस मरते रहना है ,
इन्हें तो मनुष्य पर ,
खुद को जंगली करना है ,
आखिर इनकी दुकान जो ,
चलाते रहना है सेमिनार से ,
क्या हम भी मनुष्य बनेगे ,
इअसे होते र्ह्तेव सेमिनार से .........जनजाति पर न जाने कितने सेमिनार होते है सरकार लोकहो रुपये खर्च करती है जनजाति आज तक इस देश में समाया मनुष्य नही बन पाया ...इस देश में विकास को आइना तो देखिये ,..जब देश स्वतंत्र हुआ तो २१२ जनजातिय समूह थे जो आज बढ़ कर ६९८ हो गए है .......क्या हम जनजाति भारत बना रहे है ..क्या हम कबीला संस्कृति  बढ़ा रहे है क्यों कि विकास के आईने में जनजाति एक नकारात्मक शब्द है ...और हम हर साल सेमिनार करते है ...क्या सेमिनार में वही नही होता जो मैंने पानी टूटी फूटी पंक्तियों में उकेरा है ...पर एहसास मर गया है हमारा

Wednesday, February 15, 2012

dohra pan

कैसे कह दू मुझे सिर्फ पूरब की आरजू है ,
कल ही तो ये रात मै तेरे संग सोया था ,
मेरी फितरत ही नही सिर्फ जिंदगी की ,
कल मै किसी की लाश पर भी रोया था ,
आलोक कैसे न माने दुनिया जादू की ,
नींद उसे आई और सपने मै खोया था ,
ऐसे दोहरे पन में किसका दामन थामू
आम की तलाश में बबूल जो बोया था .............क्या जीवन यही है

Tuesday, February 14, 2012

love is blind

जीवन के स्वर ,
जब भी आते है ,
मौत से कुछ दूर ,
हम निकल आते है ,
खिलते है , बिखरते है ,
और मुरझाते भी है ,
पर पीछे अपनी महक ,
भी छोड़ जाते है ,
मेरी ना मानो तो ,
पूछ लो आलोक से ,
झा से सपने रोज ,
हकीकत बन के आते है ,
पूरब का मन कभी ,
भी ऊबा ही नही ,
जीवन के नित नए रंग ,
दौड़े चले आते है ,
प्रेम तो बस एक ,
कतरा है बहने का ,
मेरी तो यादो में हर ,
शख्स चले आते है ,
क्या कहू किस से ,
अब आज के दिन ,
हम तो पुरे बसंत ,
मधु मास मानते है ......................भारत हमेशा से सहिष्णु देश रहा है और हमने शक, कुषाण , हूण, अंग्रेज . फ़्रांसिसी ,डच सबको जगह दी है ...इस लिया आज अगर विश्व हमारे बसंत उत्सव से प्रभावित होकर अपने प्रेम को एक दिन दिखाना चाहता है ...तो चन्दन विष व्याप्त नही लपटे रहत भुजंग के दर्शन वाले देश को आज उसके संत को भी प्रेम के नाम पर श्रधांजलि दे देनी चाहिए ....पर हम प्रेम में उस हर बात के विरोधी है जो प्रेम को शरीर से शुरू करके शरीर तक खत्म करता है .........प्रेम, मोहब्बत , प्यार , लव , लिखने में ही अधूरे है तो इनसे ना कभी पूर्णता आ सकती है और ना ही इस के पीछे भागने का कोई अंत है ...इस लिए हमरे धर्म , साहित्य सभी ने आत्मा , रूह से प्रेम को प्राथमिकता दी है ...जो हमारे प्रेम को अमर बनता है ...क्या आपका प्रेम अमर बन ने के लिए बढ़ रहा है ??????????????????? प्रेम का अधिकार सबको है पर दिल को चोट पंहुचा कर नही ...अखिल भारतीय अधिकार संगठन प्रेम के नाम पर किसी की गरिमा को ठेस पहुचने वाले प्रेम का विरोध करते हुए और बसंत के मेले के एक काउंटर की तरह १४ फ़रवरी को भी अवसर देता है ताकि वोखुद महसूस कर ले कि भारत के प्रेम और उनके प्रेम की गहरे कहा तक है ....आप सभी को बसंत के बीच पड़ने वाले इस दिन पर भी कुछ पल रुक कर अपने ऊपर गर्व करना चाहिए कि प्रेम में राधा कृष्ण के आदर्श को जीने वाले देश में १४ फ़रवरी कूड़े से उर्जा पैदा करने वाले उपाए से ज्यादा कुछ नही ........माँ तुझे सलाम ........डॉ आलोक चाटीया    

Monday, February 6, 2012

moring ??????????????????

आज ये अंतिम  मेरी कविता है ,
आज ना खुश दिखती सविता है ,
अंशुमाली निरंकुश रहता मिला ,
अंशु का दिल फिर क्योंना खिला  ,,
रजनीश को देख बंद आँखे हुई ,
आलोक से बेपरवाह दुनिया हुई ,
जी लेने की चाह बस सबमे दिखी,
चौपायो की बेहतर किस्मत लिखी  ,
जाने हम कैसे मनुष्य बन ही  गए  ,
बैठे जिस जगह वो और मैले हो गए ,
कहते है फर्जी सब करते है बात,
लाया  ना ठेका कोई अपने साथ ,
गाँधी भगत थे  आये यही बताने
दुनिया बनाओ सुंदर इसे ही जताने ,
मिली क्या उनको फासी और गोली ,
आलोक अब क्यों करते हो ठिठोली ,
आदमी अगर सच आदमी ही होता ,
जंगल जानवर धरा से यू ना खोता ,
अब तो नदी , जमीं सब रो रहे है ,
देखते नही सब अब ख़त्म हो रहे है ,
बनेगा फिर कौन राम की विरासत  ,
स्वयं हो गया आदमी एक आफत ,
पहले बताओ इनको जीवन का अर्थ ,
सामने खड़ा ही अस्तित्व का अनर्थ ,
जानते नही ये अब किधर जा रहे है ,
सुबह भी हो रही है इनके लिए तदर्थ ...................आइये हम पहले मनुष्य होने का मतलब समझे और यह जाने कि सिर्फ हमारे दुनिया में रहने का कोई फायदा  नही अगर जंगल, जानवर , नदी नाले सब ख़त्म हो गए ..अखिल भारतीय अधिकार संगठन के मनुष्यता अभियान का हिस्सा बनिए ...और आप सभी को तदर्थ ना होने वाली सुबह के लिए सुप्रभात


chidya aur aurat

एक चिडिया उडी आकाश में ,
एक चिडिया उडी प्रकाश में ,
साँझ का मतलब जानती है ,
अंधेरो को भी पहचानती है ,
नन्हे पर लेकर ही जीती है ,
अजब सा साहस वो देती है ,
वो निकलना कब छोडती है  ,
अपने रास्ते कब मोडती है ,
तुम चिडिया से कम नही ,
क्या तुम में कोई दम नही,
बदल डालो अपना आकाश ,
बनो लो अपने नए प्रकाश ,
साँझ से पहले संभल जाओ,
पूरब की लाली फिर बन जाओ,
ना करो भरोसा नेता पर इतना,
दूर रहो उनसे भ्रष्टाचार से जितना ,
चिडिया बाज़ से निकल जाती है ,
परगंगा को मैला निगल जाती है ,
रात को आओ फिर से समझ ले ,
मुट्ठी में आलोक पूरब से ले ले ...........देश की स्थिति समझिये और एक नए भारत के निर्माण में , महिलाओ से सम्मान में अखिल भारतीय अधिकार संगठन के साथ मिल कार्य कीजिये ...अपने मत का प्रयोग कीजिये ...शुभरात्रि

Sunday, February 5, 2012

mat dan

भगवान ने सूरज को पूरब में चमकाया ,
लोगो के दिलो में भी आलोक फैलाया ,
नींद खोलने की दवा की तरह दिवाकर ,
चेतना का संचार दिन कहलाता आकर ,
दीन हीन भी देश में अँधेरे से दूर होते ,
ठण्ड को दूर भगाते,सुख में भी खोते ,
पूरब आज फिर हमें गरम कर जायेगा ,
कोई गरीब रात में मरने ना पायेगा ,
प्रकाश में लोगो के चेहरे दिख जायेंगे ,
भेडियो से माँ के अंचल बच जायेंगे ,
क्यों नही आज तक सूरज भारत आया ,
लोकतंत्र का भाव सहीसबको बता पाया ,
कैसे वो रोकेगा फिर भ्रष्टो को आने से ,
देश के नेता का पद  चुनाव में पाने से,
प्रभाकर जाकर  अब लोगो को जगा दो ,
मत डालने की आग पुरे देश में लगा दो ...............आज सुबह सुबह सूरज को देख ऐसा लगा कि जब देश के लोग रोटी पानी की दौड़ में जागना ही नही चाहते तो क्यों ना उस से ही खा जाये कि अखिल भारतीय अधिकार सगठन कि प्रार्थना आप तक पहुचाई जाये ...मत का प्रयोग करे देश के लिए ....सुप्रभात

neta aur bhagwan

भगवान भी अब कपडे पहनने लगा है ,
भगवान अब खाना भी खाने लगा है ,
भगवान भी हवा के लिए व्याकुल है ,
भगवान झुके सर देखने को आकुल है ,
भगवान भोर होने का इंतज़ार करता है ,
भगवान सोने का भी इकरार करता है ,
भगवान से अब  डर भी  लगने लगा है ,
भगवान अब जो  से मनुष्य बनने लगा है ,
भगवान को अमीर गरीब दिखने लगा है ,
भगवान अब अंधेरो से भी डरने लगा है ,
भगवान को सूखी रोटी नही सुहाती है ,
भगवान मोटर कारो में सजने लगा है ,
भगवान को भी अब सुख की चाहत है ,
एक झोपडी में कोई मन आज आहत है ,
कितना पुकारा अपने मरते बेटे के लिए ,
भगवान तो थे बैठे कही बिकने के लिए ,
भगवान मंदिर में बैठ तुम क्यों हो मौन
क्या देखते नही पुकारता है कौन कौन ,
जड़ चेतन लाचार दीन के तुम ही सहारा ,
पर आज इन सब का मन ऐसे क्यों हारा,
कही तुम भी उसी  मनुष्य के सर्व दाता हो ,
जो लूट घसोट भ्रष्टाचार के संग  आता हो ,
तब समझ गया आलोक कलयुग आ गया ,
नेता ही भगवान का अब हर पद पा गया ..................न जाने कितनी खाई हमने खीच दी है आदमी आदमी के बीच और चाह कर भी भवन इतना मौन हो गया है की देश के हर गलत आदमी नेता बन कर भगवान बन रहा है .अपर आप इसे रोक सकते है ...एक मत से नेता और भगवान में फर्क कर सकते है ...यही अखिल भारतीय अधिकार संगठन का प्रयास और पुकार है ..शुभ रात्रि

Saturday, February 4, 2012

sun le meri pukar bhagwan

आज मै भी मंदिर घंटिया बजा आया हूँ ,
भगवान को सोते से अभी जगा आया हूँ ,
जब से आप भी मेरी तरह सोने लगे है ,
शहर में हर रात कितने क़त्ल होने लगे है ,
देखो मांग में सिंदूर भरे लटो से गिरती बूंदे,
लेकर स्रजन की देवी भी पूजा करने आई है ,
फिर भी कल रात एक चीख सुनने में आई है ,
शायद दहेज़ ने एक लड़की जिन्दा फिर खाई है ,
कितने मन से पुकारा था द्रौपदी को याद करके ,
फिर उससे हिस्से में  नग्नता की क्यों आई है ,
कितनी ही इंतज़ार में बैठी ऊपर के बने रिश्तो के,
क्या उनके हाथ में तुमने वो रेखा भी बनाई है ,
कुंती की तरह डर से  सड़क पर पड़े भीष्म के शव ,
क्या माँ बन ने का अधिकार वो खुद  ले पाई  है ,
भगवान अब आलोक की  विनती बस इतनी तुमसे ,
अब रात में फिर कभी न सो जाना मनुष्य की तरह ,
दिन के उजालो में तुमपर जीने वालो को बता दो ,
औरत भी साँस लेती है ठीक तुम्हारी  हमारी तरह ..................सुप्रभात ...आपको ऐसा लगता है कि मै रात दिन कविता कहानी लिखता हूँ तो ऐसा नही है ....बस कुछ देर इस बात के एहसास में कि मनुष्य होने का मतलब समझ लू आपके साथ अपनी दो लीनो के साथ आ जाता हूँ और आप में ही वो भगवान पता हूँ जिस से मै अभी विनती कर रहा था ..............आज का दिन आप सभी के लिए सुभ हो ऐसी कि कल्पना अखिल भारतीय अधिकार संगठन की है .....सुप्रभात

dard mere mann ka

ऐसा नही है कि लोग मुस्कराना भूल गए है ,
बस जलते हुए घर को बुझाना भूल गए है ,
जिन्दगी कुछ इस तरह दौड़ती भाग रही है ,
गिरते हुए लोग को हम उठाना भूल गए है  ,
रात को भी दिन समझ काम से है झूझ रहे ,
आलोक के राग पर हम गुनगुना भूल गए है ,
चाहता है मन कही कोई हसी खरीद दे मुझे ,
आदमी के मतलब को समझाना भूल गए है ,...............शायद ऐसा ही गुजरता है हम सभी का दिन ..पता नही जीवन के पथ पर हम मनुष्य कहा आ गए , कि दो पल का चैन हम खुद खा गए ...आइये रात में सपने को बुलाये और मनुष्य बन जाये ..शुभ रात्रि अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Friday, February 3, 2012

maa aur ujala

अंगड़ाई  लेकर देखा जब ,
सूरज मेरे पास खड़ा था ,
पलट कर देखा शून्य मिला ,
आकाश अनंत सा पड़ा था ,
तो क्या फिर सुबह हो गई ,
खग  की यात्रा शुरू हो गई
पायल की आवाज़ अभी आई ,
रसोई से एक खुशबू सी आई ,
लोरी सी आवाज़ भी पीछे ,
सुनो जल्दी उठो कब तक ????
भगवन का नाम तो ले लो ,
सोते रहो गे अब कब तक ,
मै दौड़ा बिस्तर से सरपट ,
पर नीरवता रसोई में छाई ,
ओह यह सिर्फ स्वप्न था ,
माँ मुझे ही थी याद आई ....
सुबह सबह आंचल की ममता ,
फिर बिन कहे मैंने  थी पाई......................आज सो कर उठने का मन नही था पर मुझसे सैकड़ो किलोमीटर दूर माँ को शायद मेरे दर्द का एहसास आज भी हुआ और मै पूरी रात उन्ही के साथ न जाने क्या क्या सोचता रहा .और उसी को मैंने आपके साथ अभी उठने के तुरंत बाद बाटा है ...आप सभी को माँ मुबारक

subah ka sach

दिन भर मुट्ठी में उजाला पकड़ता रहा ,
फिर  भी  क्यों मन अँधेरे से डरता रहा ,
पग ने भी जाने कितना पथ चल डाला ,
कहते जीवन को अब भी है , मधु शाला ,
स्रजन का असली मतलब तारे समझाए
देख निशा के संग कुछ सपने भी है आये ,
बुन कर इनको फिर नींद के रंग से भर दो ,
सांसो की वीणा से मन्त्र मुग्ध सा कर दो ,
आलोक की आहट सोच रात छोटी हो जाये ,
हर आँखों का स्वप्न पूरब का दर्शन हो जाये,................शुभरात्रि ..अखिल भारतीय अधिकार संगठन (ऐरो) 

Thursday, February 2, 2012

suprabhat

मेरे हिस्से की पूरब में लाली आ गई ,
देखो कैसे चेहेरे पर खुशहाली आ गई,
चलो सभी कुछ कदम फिर साथ चले ,
सुबह की बयार और हरियाली आ गई ,
अंधेरो से निजात बंद आँखों ने दिया ,
आलोक की सौगात उसको आ भी गई ,
चलो कुछ देर गा ले अब  सांसो के गीत ,
उम्र से हार करहर कही तरुणाई आ गई  .................चलिए आप सभी को अखिल भारतीय अधिकार संगठन सुप्रभात कहने आ गया .............एक नया दिन नै सोच पा गया

tammna

उजाला भी हो जायेगा मयस्सर ,
पहले अंधेरो से तो प्यार कर लो ,
दिन भर की अपनी हकीकत में ,
थोडा सपनो को दो चार कर लो ,
कौन सोता है सिर्फ आलोक ऐसे ,
कुछ सांसो पर तो ऐतबार कर लो ,
चलो अब दुनिया में रहकर न रहे ,
ठंडक में रजाई से  प्यार कर लो ,
कल फिर मिलेंगे ऐसा भरोसा है ,
ऊपर वाले को अब सलाम कर लो .........ऐसे ही रात का इस्तेकबाल करके खो जाइये प्यारी सी नींद में और इंतज़ार कीजिये जब पूरब से आलोक आपको फिर जगाने आएगा ..............शुभ रात्रि .अखिल भारतीय अधिकार संगठन की तरफ से मै आपको शुभ रात्रि

dard

हर मंदिर पर झुके सर तेरे आगे ,
फिर भी रहे सब क्यों इतना अभागे ,
भूख प्यास की मची तबाही तो देखो ,
क्या भगवान,अभी नही तुम जागे ,
कौन से अँधेरे का इंतज़ार इनका ,
आलोक इनके हिस्से का कौन मांगे ,
पत्थर के सही पर भगवान हो तुम ,
तेरे दिल की आवाज़ हो इससे आगे

Wednesday, February 1, 2012

subah ka suraj

ढलती शाम के नशे  में ,
रात की तन्हाई का आलम था ,
फकत एक पूरब ही ऐसा था ,
जिस पे ऐतबार कर मै सोया ,
किया उसने भी न फरेब ,
एक कतरा आलोक वो ले आया ,
इस दुनिया में किसे कहे अपना ,
तुम्हे या उस आफताब को ,
जो जर्रे जर्रे को जगा आया ,............सोते हम सभी इसी ख्वाब को लेकर है कि सुबह हमारे हिस्से में भी होगी पर ऐसा जरुरी नही है ...और जब आपको ऊपर वाले ने आज की सुबह में फिर यह नियामत बख्शी है .तो आइये खुश खास हो जाये ....आदाब और अखिल अखिल भारतीय अधिकार संगठन की तरफ से सलाम आप सभी को

javan aur maut

मुझे छोड़ जिन्दगी ,
मौत की हो गई ,
बेनाम बदहवास ,
बकवास हो गई ,
इधर उधर ना जाने ,
कहा कहा भटकी ,
थक हार के फिर ,
किलकारी हो गई.................क्या यह सच नही है कि जन्दगी के साथ तो मौत  होती है जो एक तथ्य है .पर मौत के साथ या बाद भी जिन्दगी होती है ..यह एक दर्शन है पर यह दर्शन हमें सुकून देता है और हम सो जाते है एक सुनहरे कल का सपना लेकर ............शुभ रात्रि