Tuesday, May 23, 2023

आज क्यों लोग मुझे आवारा कह गए

 आज लोग क्यों मुझे 

 आवारा कह गए l

जमीन के टुकड़े बस ,

बंजर से अब रह गए l

न बो सका एक बीज ,

न की कोई ही तरतीब l

पसीने का एक कतरा,

भी नही बहाया मैंने l

ना  तो मैं कभी थका,

और ना ही उतारी  थकान l

आलोक कैसे चुनता अँधेरा ,

फिर कैसे होता सृजन महान l

आज मुझे आवारा कह कर ,

क्यों बादल बना रहे हो ?

धरती की अस्मिता को ,

घाव सा हरा करा रहे हो l

कहते क्यों नहीं तुम्हे ,

अपने सुख की आदत है l

तुम्हारी ख़ुशी के लिए ,

जमी की आज शहादत है l

जी लेने दो हर टुकड़े को ,

बस वही सच्ची इबादत है l.............

आलोक चांटिया 

.पता नहीं क्यों मानव ने संस्कृति बनाने के बाद एक अजीब सी फितरत पाल ली कि अगर लड़का लड़की साथ में है तो सिर्फ एक ही काम होगा या फिर लड़की का मतलब ही सिर्फ एक ही है अगर आप अकेले है तो आप से कोई जरूर पूछ लेगा क्या भाई ???????????कोई मिली नहीं क्या ? अगर किसी के साथ है तो और भाई आज कल तो आपके बड़े मजे है शायद इसी मानसिकता के लिए हमने संस्कृति बनाई ....सोचियेगा जरूर

जाने क्यूं अब शर्म से, चेहरे गुलाब नही होते।

 जाने क्यूं

अब शर्म से, चेहरे गुलाब नही होते।

जाने क्यूं

अब मस्त मौला मिजाज नही होते।

पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें।

जाने क्यूं

अब चेहरे, खुली किताब नही होते।


सुना है

बिन कहे 

दिल की बात समझ लेते थे।

गले लगते ही

दोस्त हालात समझ लेते थे।

जब ना फेस बुक थी

ना व्हाटस एप था

ना मोबाइल था

एक चिट्टी से ही

दिलों के जज्बात समझ लेते थे।


सोचता हूं

हम कहां से कहां आ गये।

प्रेक्टीकली सोचते सोचते

भावनाओं को खा गये।

अब भाई भाई से

समस्या का समाधान कहां पूछता है

अब बेटा बाप से

उलझनों का निदान कहां पूछता है

बेटी नही पूछती

मां से गृहस्थी के सलीके।

अब कौन गुरु के चरणों में बैठकर

ज्ञान की परिभाषा सीखे।

परियों की बातें

अब किसे भाती है

अपनो की याद

अब किसे रुलाती है

अब कौन 

गरीब को सखा बताता है

अब कहां 

कृण्ण सुदामा को गले लगाता है

जिन्दगी मे

हम प्रेक्टिकल हो गये है

रोबोट बन गये है सब

इंसान जाने कहां खो गये है

इंसान जाने कहां खो गये है

इंसान जाने कहां खो गये है....

आंखों के बादल से..... कविता

 आँखों के बादल से ,

निकल कुछ बून्द ,

दौड़ पड़ी कपोल ,

तन की धरती पर ,

किसी के मन में ,

हरियाली फैली तो ,

कोई दलदल में डूबा ,

अविरल धारा देख किसी ,

दिल का सब्र था उबा ,

खारा पानी आया कैसे ,

समुद्र कहाँ से टूटा,

नैनो की गहराई में ,

कौन रत्न है छूटा ,

छिपा बादलों में सूरज ,

आलोक नीर ने लूटा ,

....................जब भी दुनिया को पानी की जरूरत हुई है तो आलोक को बादलों में छिपाना पड़ा है या फिर धरती की अटल गहराई के अंधकार से उसे निकलना पड़ा है पर आज दुनिया अँधेरे में नही रहना चाहती इसी लिए उसके आँखों में पानी नहीं रह गया है जब भी कोई रोता  है तो आप मान लीजिये कि उसने मान लिया है कोई सच्चाई (आलोक ) उसके भीतर छिपी  है

Sunday, May 14, 2023

अपने बीजों की तरह...... एक कविता


 बार-बार फूल और कांटे 

पेड़ों के नीचे बैठकर परिंदे 

हमें यह सिखा रहे हैं 

क्यों मानव होकर हम 

दुनिया से जिंदगी का 

नामोनिशान मिटा रहे हैं 

मनोरंजन के खातिर 

जब बर्बाद कर देते हो 

करोड़ों अपने बीजों को 

वैसे ही हंसी खेल में 

एक बीज दरख़्त का 

क्यों नहीं लगा रहे हो 

आलोक चांटिया

Wednesday, May 3, 2023

भूख का एहसास








 

उसको पाने के लिए

 

रात का डर किसको सुबह की आहट में ,
मौत का डर किसको तेरी चाहत में ,
हर इसी को इंतज़ार समय की अंगड़ाई का ,
पैमाने का डर किसको आँखों की राहत में  ........१
जब दामन से तन्हाई लिपट जाती है ,
आँखे खुद ब खुद  छलक आती है ,
डरता हूँ कही कोई देख ना ले मुझको  ,
इसी से हसी ओठो पे मचल जाती है ....................२
खो जाना बेहतर है पाने के लिए ,
चले जाना बेहतर फिर आने के लिए ,
सभी में छिपी है रब की एक सूरत ,
तुझको जीना बेहतर उसको पाने के लिए ...........३
डॉ आलोक चांटिया