Monday, September 30, 2019

माना कि मन हताश है

माना की आज मन हताश है ,
पर बंजर में भी एक आस है ,
चला कर तो एक बार देख लो ,
अपाहिज में चलने की प्यास है ,
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है ,

लौट कर आऊंगा या नही मैं ,
क्या पता किसको एहसास है ,
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,
मौत के पार ही कोई प्रकाश है ,
आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,
हार कर भी मुझमे उजास है ,
पागल मुझको कहकर खुद ही ,
देखो आज वो किसकी लाश है ,
आज कर लो जो मन में है कही ,
जाते हुए न कहना मन निराश है ,
सभी को नही मिलता आदमी यहा,
आज जानवरों का यही परिहास है ,....................आइये कुछ देर कही यह सोच कर देखे कि हम को सोने से पहले सुबह उठने की जितनी आशा है ..क्या जीवन में असफलता और हरने के बाद भी उतनी आशा है ............क्या ऐसे किसी अधिकार को आप लड़ रहे है जो आपसे दूर है

विकास का भारत

नमन काव्योदय आज का कार्य
दिनांक -३०-०९-२०१९विषय-गरीबी
सड़क के किनारे,
भारत माँ,
चिथड़ो में लिपटी ,
इक्कीसवी सदी में ,
जा रहे देश को ,
दे रही चुनौती,
खाने को न रोटी ,
पहनने को न धोती ,
है तो उसके हाथ में ,
कटोरा वही ,
जिससे झलकती है ,
प्रगति की पोथी सभी ,
किन्तु हर वर्ष ,
होता है ब्योरों का विकास ,
हमने इतनो  को ,
बांटी रोटी ,
और कितनो को आवास ,
किन्तु ,
आज भी है उसे ,
अपने कटोरे से आस ,
जो शाम को ,
जुटाएगा एक रोटी ,
और तन को ,
चिथड़ी धोती ,
पर लाल किले से,
आएगी यही एक आवाज़ ,
हमने इस वर्ष ,
किया चहुमुखी विकास ,
हमने इस वर्ष ,
किया चहुमुखी विकास |
डॉ आलोक चान्टिया"महा-रज"