Tuesday, September 2, 2014

सोचो और सोचो

जाने के आसरे बैठे क्यों हो ,
क्यों आये हो ये भी सोचो ,
क्या दिया है इस दुनिया को ,
कभी तन्हाई में ये भी सोचो ,
जिसको करके तुम खुश हुए ,
ये सब तो है कौन न करता ,
मानव होकर दिया क्या तुमने,
मुट्ठी में है रेत तो सोचो ,
अगर नहीं कोई फर्क चौपाये से ,
दो हाथ मिले क्यों सोचो ,
जी लो एक बार उसके खातिर ,
भगवन को एक बार तो सोचो ,
कितना दीन हीन हुआ वो है ,
उसकी बेबसी को भी तो सोचो ,
क्या कहे अब सब मिटा कर ,
मानव कैसे ले अवतार वो सोचो .........
ऊपर वाला क्या खुश है मानव को बना कर


Monday, September 1, 2014

कैसी है जिंदगी मेरी तेरे हाथ में

क्या कहूँ क्या जीवन मेरा ,
मौत से बेहतर से क्या जानूँ,
छोड़ गए जो मुझे अकेला ,
उनको मानव मैं क्यों मानूं ,
जो कहते थे लोग सभी ,
सुख के सब साथी होते है ,
वही अक्सर  बाजार में खड़े ,
मेरे सुख के खरीददार होते है ,
मुझे कोई फर्क नहीं अँधेरे का ,
सपने तभी सुन्दर आते है ,
कोई ताज महल तामीर होता ,
जब आलोक से दूर जाते है ,
मेरे गरीबी के जलते दीपक ,
तुमको दीपावली ख़ुशी देंगे ,
मेरे फटे हाल कपडे के सपने ,
उचे लोग फैशन में लेंगे  ,
फिर छूट रही है ऊँगली ,
मुट्ठी में रेत की तरह आज ,
सिलवटें, मसले हुए फूल ,
ना जानेंगे  रात का राज  ,
अब अँधेरा तो बहुत है ,
रिश्तो के दायरों में लेकिन ,
पर एक रिश्ता फिर उभरा ,
मेरी बर्बादी से तेरा मुमकिन ...........
पता नहीं क्या लिखता रहा कभी समझ में आये तो मुझे समजाहिएगा जरूर क्योकि आज आदमी से ज्यादा बर्बादी का खेल कोई नहीं खेल रहा एक पागल कुत्ता भी नहीं एक जहरीला सांप भी नहीं .......