मिट्टी का साथ पाकर,
एक पौधा कंक्रीट के,
बने इमारत पर निकलने का,
साहस तो कर बैठा ,
फूल भी खिला, पत्ती भी निकली,
हरियाली के वह हर रंग देखने लगा,
पर भला कब पैसों की इमारत से,
बड़ा फूल हो पाया है !
यह सच है वह किसी ,
नवयुवती के केश का श्रृंगार बना है,
कहीं देवालय पर,
भगवान के साथ रहा है,
लाशों का भी कभी-कभी ,
साथ ले लिया है कभी वीरों के,
रास्तों का श्रृंगार बना है,
लेकिन आज उसके हिस्से में,
दर-दर की ठोकर और सड़क पर,
उखाड़ कर फेंक देने का,
आलोक हिस्सा आया है,
क्योंकि उसने गलत जगह पर,
गलत समय पर मिट्टी का साथ पाकर,
इमारत पर उगने का ,
साहस कर लिया था ,
इसलिए हर गुण के बाद भी,
आदमी ने उसे ,
उसके भ्रम की सजा दिया था,
उसे अपनी इमारत से उखाड़ दिया था,
वह जान गया था गलत जगह,
गलत समय गलत साथ का ,
क्या फल मिलता है ,
चाहे फूल हो या शूल हो,
जरूरत पर गले लगाते सभी हैं,
लेकिन सीमाओं को भूल जाने पर, उपेक्षा,
अपमान की बिसात पर ,
एक फूल अक्सर सड़क पर ,
ऐसे ही कुचला हुआ मिलता है।
आलोक चांटिया